इबादत की हक़ीकी रूह

*🕯 इबादत की हक़ीकी रूह 🕯*

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अल्लाह पाक ने दुनिया में हर चीज़ को किसी न किसी मक़सद के तहत बनाया है। उसी तरह इंसान को भी ख़ास मक़सद के तहत पैदा किया गया है और वो यह है कि इंसान सिर्फ़ अल्लाह पाक की इबादत करे। चुनांचे अल्लाह पाक इरशाद फरमाता है:

**(व मा ख़लक्तुल जिन्न वल इन्स इल्ला लियाबुदून (५६))**

**तरजुमा-ए-कंजुल इरफान:** और मैंने जिन्न और इंसान को सिर्फ़ अपनी इबादत के लिए पैदा किया।

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**मोहब्बत-ए-इलाही:**

याद रहे! इबादत की हक़ीकी रूह हमें उस वक़्त तक नसीब नहीं हो सकती जब तक हमारे दिल में कामिल मोहब्बत-ए-इलाही, अल्लाह से कामिल उम्मीद और उसका कामिल ख़ौफ़ न हो। इसलिए सबसे पहले यह ज़रूरी है कि हम अल्लाह पाक से मोहब्बत को लाज़िमी बना लें।

किसी के ज़ेहन में यह बात आ सकती है कि सब मुसलमान ही अल्लाह पाक से मोहब्बत का दावा करते हैं? इसका जवाब यह है कि यह दुरुस्त है, लेकिन असल मोहब्बत-ए-इलाही यह है कि अल्लाह पाक को मानने के साथ-साथ अल्लाह पाक की भी मानी जाए।

इसी सूरत में हमें अल्लाह पाक की रज़ा, खुशनूदी और इबादत की हक़ीकी रूह नसीब होगी। बल्कि जब हम नमाज़ में हों तब भी हमारी कामिल तवज्जो अल्लाह ही की तरफ़ होनी चाहिए।

जैसा कि इमाम ग़ज़ाली रहमतुल्लाह अलैह फरमाते हैं:

"सबसे ज़्यादा (इबादत का) बुलंद दर्जा यह है कि अल्लाह पाक की मोहब्बत और इस बात पर पुख्ता ईमान हो कि हालत-ए-क़ियाम में यह जो कुछ भी कहता है, हर हर हरफ़ के ज़रिए बारगाह-ए-इलाही में मुनाजात कर रहा है और वह इस पर आगाह है।

नीज़ जो ख़यालात दिल में आएं उनका भी मुशाहदा करे और यक़ीन रखे कि ये ख़तरात अल्लाह पाक की तरफ़ से उसे ख़िताब हैं।

क्योंकि जब कोई अल्लाह पाक से मोहब्बत करेगा तो वह लाज़मी तौर पर उसके साथ खलवत को भी पसंद करेगा और उससे मुनाजात करने की लज़्ज़त पाएगा, और हबीब के साथ मुनाजात करने की लज़्ज़त ज़्यादा देर क़ियाम पर उभारेगी।"

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**दुआ:**

हदीस-ए-पाक में दुआ को भी इबादत की रूह क़रार दिया गया है। चुनांचे एक हदीस शरीफ़ में है:

**"दुआ इबादत का मग़ज़ है,"** यानी इसके ज़रिए इबादत क़वी होती है, क्योंकि दुआ इबादत की रूह है।

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**इख़लास व ख़ुशू व ख़ुज़ू:**

इसी तरह याद रखिए! इबादात में चाशनी, लज़्ज़त और इत्मीनान की एक सूरत यह है कि **इख़लास** के साथ और निहायत **ख़ुशू व ख़ुज़ू** से इबादत की जाए, क्योंकि इख़लास और ख़ुशू व ख़ुज़ू भी इबादत की रूह हैं।

जैसा कि मुफ़्ती मुहम्मद अमजद अली आज़मी रहमतुल्लाह अलैह फरमाते हैं:

"इबादत कोई भी हो, उसमें इख़लास निहायत ज़रूरी चीज़ है, यानी महज़ रज़ा-ए-इलाही के लिए अमल करना ज़रूरी है।

दिखावे के तौर पर अमल करना **बिल-इज्मा' हराम** है, बल्कि हदीस में **रिया** को **शिर्क-ए-असगर** फरमाया गया।"

लिहाज़ा मुसलमान ख़्वातीन को चाहिए कि इन तमाम बातों को पेशे-नज़र रखें और अपनी ज़िंदगी से रिया कारी और दिखावा निकाल कर फेंक दें।

ऐसा नहीं कि सिर्फ़ मर्द ही रिया कारी करते हैं, बल्कि बहुत से मामलात में यह मर्ज़ औरतों में भी पाया जाता है।

मिसाल के तौर पर — अपनी नेकियों, नमाज़, रोज़ा, हज, ज़कात, सदक़ात वग़ैरह को बढ़ा-चढ़ाकर दूसरों के सामने बग़ैर उनके पूछे बयान करना ताकि लोग वाह-वाही करें और तारीफ़ करें — यह अमल अल्लाह पाक को सख़्त नापसंद है।

इसीलिए ऐसे लोगों की इज़्ज़त भी ख़ाक में मिल जाती है।

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*हवाले:*

\[1] पारा 27, सूरह अज़-ज़ारियात: 56

\[2] इहया उलूमुद्दीन, 1/1064 मुख़्तसरन

\[3] अत-तयसीर बिशरह अल-जामिउस सग़ीर, 2/11

\[4] बहार-ए-शरीअत, 3/636 मुख़्तसरन